काका की प्रमुख कृतियाँ * कालिज स्टूडैंट * घूस माहात्म्य * चांद की यात्रा पर नेता जी की प्रतिक्रिया * दहेज की बारात * दामाद और यमराज * धमधूसर कव्वाल * नगरपालिका या नरकपालिका * नाम-रूप का भेद * पुलिस महिमा * प्यार किया तो मरना क्या * भारत में हिंदी * महंगाई और भ्रष्टाचार * मुर्ग़ी और नेता

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

काका हाथरसी


Kaka Hathrasiसन १९०६ में हाथरस में जन्मे काका हाथरसी ( असली नाम : प्रभुनाथ गर्ग, छायाचित्र www.abhivyakti-hindi.org के सौजन्य से) हिंदी व्यंग्य के मूर्धण्य कवि थे। उनकी शैली की छाप उनकी पी ढ़ी के अन्य कवियों पर तो पड़ी ही , आज भी अनेकों लेखक और व्यंग्य कवि काका की रचनाओं की शैली अपनाकर लाखों श्रोताओं और पाठकों का मनोरंजन कर रहे हैं।
व्यंग्य का मूल उद्देश्य लेकिन मनोरंजन नहीं बल्कि समाज में व्याप्त दोषों , कुरीतियों , भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुशासन की ओर ध्यान आकृष्ट करना है। ताकि पाठक इनको प ढ़ कर बौखलाये और इनका समर्थन रोके। इस तरह से व्यंग्य लेखक सामाजिक दोषों के ख़िलाफ़ जनमत तैयार करता है और समाज सुधार की प्रक्रिया में एक अमूल्य सहयोग देता है। इस विधा के निपुण विद्वान थे काका हाथरसी , जिनकी पैनी नज़र छोटी से छोटी अव्यवस्थाओं को भी पक ड़ लेती थी और बहुत ही गहरे कटाक्ष के साथ प्रस्तुत करती थी। उदाहरण के लिये देखिये अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार पर काका के दो व्यंग्य :
बिना टिकिट के ट्रेन में चले पुत्र बलवीर
जहाँ ‘ मूड ’ आया वहीं, खींच लई ज़ंजीर
खींच लई ज़ंजीर, बने गुंडों के नक्कू
पकड़ें टी . टी . गार्ड, उन्हें दिखलाते चक्कू
गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार ब ढ़ा दिन - दूना
प्रजातंत्र की स्वतंत्रता का देख नमूना
या फिर :
राशन की दुकान पर, देख भयंकर भीर
‘ क्यू ’ में धक्का मारकर, पहुँच गये बलवीर
पहुँच गये बलवीर, ले लिया नंबर पहिला
खड़े रह गये निर्बल, बू ढ़े , बच्चे , महिला
कहँ ‘ काका ' कवि , करके बंद धरम का काँटा
लाला बोले - भागो, खत्म हो गया आटा
काका हाथरसी का अविस्मरणीय योगदान उनकी सदा याद दिलायेगा।

घूस माहात्म्य

कभी घूस खाई नहीं, किया न भ्रष्टाचार
ऐसे भोंदू जीव को बार-बार धिक्कार
बार-बार धिक्कार, व्यर्थ है वह व्यापारी
माल तोलते समय न जिसने डंडी मारी
कहँ 'काका', क्या नाम पायेगा ऐसा बंदा
जिसने किसी संस्था का, न पचाया चंदा
रचना : काका हाथरसी
‘ काका की फुलझड़ियाँ ’ पुस्तक ( डायमण्ड पॉकेट बुक्स , नई दिल्ली , संस्करण २००२ ) में प्रकाशित कविता 'मिलावट' से संक्षिप्त रूप में साभार उद्धृत

दहेज की बारात

दहेज की बारात (ब्रज भाषा में)

जा दिन एक बारात को मिल्यौ निमंत्रण-पत्र
फूले-फूले हम फिरें, यत्र-तत्र-सर्वत्र
यत्र-तत्र-सर्वत्र, फरकती बोटी-बोटी
बा दिन अच्छी नाहिं लगी अपने घर रोटी
कहँ 'काका' कविराय, लार म्हौंड़े सों टपके
कर लड़ुअन की याद, जीभ स्याँपन सी लपके

मारग में जब है गई अपनी मोटर फ़ेल
दौरे स्टेशन, लई तीन बजे की रेल
तीन बजे की रेल, मच रही धक्कम-धक्का
दो मोटे गिर परे, पिच गये पतरे कक्का
कहँ 'काका' कविराय, पटक दूल्हा ने खाई
पंडितजू रह गये, चढ़ि गयौ ननुआ नाई

नीचे को करि थूथरौ, ऊपर को करि पीठ
मुर्गा बनि बैठे हमहुँ, मिली न कोऊ सीट
मिली न कोऊ सीट, भीर में बनिगौ भुरता
फारि लै गयौ कोउ हमारो आधौ कुर्ता
कहँ 'काका' कविराय, परिस्थिति विकट हमारी
पंडितजी रहि गये, उन्हीं पे 'टिकस' हमारी

फक्क-फक्क गाड़ी चलै, धक्क-धक्क जिय होय
एक पन्हैया रह गई, एक गई कहुँ खोय
एक गई कहुँ खोय, तबहिं घुस आयौ टी-टी
मांगन लाग्यौ टिकस, रेल ने मारी सीटी
कहँ 'काका', समझायौ पर नहिं मान्यौ भैया
छीन लै गयौ, तेरह आना तीन रुपैया

जनमासे में मच रह्यौ, ठंडाई को सोर
मिर्च और सक्कर दई, सपरेटा में घोर
सपरेटा में घोर, बराती करते हुल्लड़
स्वादि-स्वादि में खेंचि गये हम बारह कुल्हड़
कहँ 'काका' कविराय, पेट हो गयौ नगाड़ौ
निकरौसी के समय हमें चढ़ि आयौ जाड़ौ

बेटावारे ने कही, यही हमारी टेक
दरबज्जे पे ले लऊँ नगद पाँच सौ एक
नगद पाँच सौ एक, परेंगी तब ही भाँवर
दूल्हा करिदौ बंद, दई भीतर सौं साँकर
कहँ 'काका' कवि, समधी डोलें रूसे-रूसे
अर्धरात्रि है गई, पेट में कूदें मूसे

बेटीवारे ने बहुत जोरे उनके हाथ
पर बेटा के बाप ने सुनी न कोऊ बात
सुनी न कोऊ बात, बराती डोलें भूखे
पूरी-लड़ुआ छोड़, चना हू मिले न सूखे
कहँ 'काका' कविराय, जान आफत में आई
जम की भैन बरात, कहावत ठीक बनाई

समधी-समधी लड़ि परै, तै न भई कछु बात
चलै घरात-बरात में थप्पड़- घूँसा-लात
थप्पड़- घूँसा-लात, तमासौ देखें नारी
देख जंग को दृश्य, कँपकँपी बँधी हमारी
कहँ 'काका' कवि, बाँध बिस्तरा भाजे घर को
पीछे सब चल दिये, संग में लैकें वर को

मार भातई पै परी, बनिगौ वाको भात
बिना बहू के गाम कों, आई लौट बरात
आई लौट बरात, परि गयौ फंदा भारी
दरबज्जै पै खड़ीं, बरातिन की घरवारीं
कहँ काकी ललकार, लौटकें वापिस जाऔ
बिना बहू के घर में कोऊ घुसन न पाऔ

हाथ जोरि माँगी क्षमा, नीची करकें मोंछ
काकी ने पुचकारिकें, आँसू दीन्हें पोंछ
आँसू दीन्हें पोंछ, कसम बाबा की खाई
जब तक जीऊँ, बरात न जाऊँ रामदुहाई
कहँ 'काका' कविराय, अरे वो बेटावारे
अब तो दै दै, टी-टी वारे दाम हमारे
रचना : काका हाथरसी
‘ काका की फुलझड़ियाँ ’ पुस्तक ( डायमण्ड पॉकेट बुक्स , नई दिल्ली , संस्करण २००२ ) से साभार उद्धृत

चांद की यात्रा और नेता जी

चंद्रयात्रा और नेता का धंधा

ठाकुर ठर्रा सिंह से बोले आलमगीर
पहुँच गये वो चाँद पर, मार लिया क्या तीर?
मार लिया क्या तीर, लौट पृथ्वी पर आये
किये करोड़ों ख़र्च, कंकड़ी मिट्टी लाये
'काका', इससे लाख गुना अच्छा नेता का धंधा
बिना चाँद पर चढ़े, हजम कर जाता चंदा
 
रचना : काका हाथरसी
स्रोत: अज्ञात (टिप्पणी: उपर्युक्त पंक्तियाँ स्मृति से उद्धृत की गईं हैं, अतः इनमें ग़लतियां संभव हैं।)

मुर्ग़ी और नेता

मुर्ग़ी और नेता

नेता अखरोट से बोले किसमिस लाल
हुज़ूर हल कीजिये मेरा एक सवाल
मेरा एक सवाल, समझ में बात न भरती
मुर्ग़ी अंडे के ऊपर क्यों बैठा करती
नेता ने कहा, प्रबंध शीघ्र ही करवा देंगे
मुर्ग़ी के कमरे में एक कुर्सी डलवा देंगे
 
रचना : काका हाथरसी
स्रोत: अज्ञात (टिप्पणी: उपर्युक्त पंक्तियाँ स्मृति से उद्धृत की गईं हैं, अतः इनमें ग़लतियां संभव हैं।)

धमधूसर कव्वाल

धमधूसर कव्वाल

मेरठ में हमको मिले धमधूसर कव्वाल
तरबूजे सी खोपड़ी, ख़रबूजे से गाल
ख़रबूजे से गाल, देह हाथी सी पाई
लंबाई से ज़्यादा थी उनकी चौड़ाई
बस से उतरे, इक्कों के अड्डे तक आये
दर्शन कर घोड़ों ने आँसू टपकाये
रिक्शे वाले डर गये, डील-डौल को देख
हिम्मत कर आगे बढ़ा, ताँगे वाला एक
ताँगे वाला एक, चार रुपये मैं लूँगा
दो फ़ेरी कर, हुज़ूर को पहुँचा दूँगा
रचना : काका हाथरसी
स्रोत: अज्ञात (टिप्पणी: उपर्युक्त पंक्तियाँ अधूरी हैं एवं स्मृति से उद्धृत की गईं हैं, अतः इनमें ग़लतियां संभव हैं।)

महंगाई और भ्रष्टाचार

मँहगाई

जन - गण - मन के देवता , अब तो आँखें खोल
महँगाई से हो गया , जीवन डाँवाडोल
जीवन डाँवाडोल , ख़बर लो शीघ्र कृपालू
कलाकंद के भाव बिक रहे बैंगन - आलू
कहँ ‘ काका ' कवि , दूध - दही को तरसे बच्चे
आठ रुपये के किलो टमाटर , वह भी कच्चे
 
राशन की दुकान पर , देख भयंकर भीर
‘ क्यू ’ में धक्का मारकर , पहुँच गये बलवीर
पहुँच गये बलवीर , ले लिया नंबर पहिला
खड़े रह गये निर्बल , बू ढ़े , बच्चे , महिला
कहँ ‘ काका ' कवि , करके बंद धरम का काँटा
लाला बोले - भागो , खत्म हो गया आटा
रचना : काका हाथरसी
‘ काका की फुलझड़ियाँ ’ पुस्तक ( डायमण्ड पॉकेट बुक्स , नई दिल्ली , संस्करण २००२ ) साभार उद्धृत

भारत में हिंदी

हिंदी की दुर्दशा

बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य
सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य
है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा-
बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा
कहँ ‘ काका ' , जो ऐश कर रहे रजधानी में
नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में
 
पुत्र छदम्मीलाल से, बोले श्री मनहूस
हिंदी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूस
जाओ बेटे रूस, भली आई आज़ादी
इंग्लिश रानी हुई हिंद में, हिंदी बाँदी
कहँ ‘ काका ' कविराय, ध्येय को भेजो लानत
अवसरवादी बनो, स्वार्थ की करो वक़ालत
रचना : काका हाथरसी
‘ काका की फुलझड़ियाँ ’ पुस्तक ( डायमण्ड पॉकेट बुक्स , नई दिल्ली , संस्करण २००२ ) से साभार उद्धृत

कालिज स्टूडैंट

कालिज स्टूडैंट

फ़ादर ने बनवा दिये, तीन कोट छै पैंट
लल्ला मेरा बन गया, कालिज स्टूडैंट
कालिज स्टूडैंट, हुये होस्टल में भरती
दिन भर बिस्कुट चरैं, शाम को खायें इमरती
कहँ 'काका' कविराय, बुद्धि पर डाली चादर
मौज़ कर रहे पुत्र, हड्डियां घिसते फ़ादर

रचना : काका हाथरसी
‘ काका की फुलझड़ियाँ ’ पुस्तक ( डायमण्ड पॉकेट बुक्स , नई दिल्ली , संस्करण २००२ ) में प्रकाशित कविता 'कालिज-स्टूडैंट' से संक्षिप्त रूप में साभार उद्धृत

नगरपालिका या नरकपालिका

नगरपालिका वर्णन

ार्टीबंदी हों जहाँ , घुसे अखाड़ेबाज़
मक्खी , मच्छर , गंदगी का रहता हो राज
का रहता हो राज , सड़क हों टूटी - फूटी
नगरपिता मदमस्त , छानते रहते बूटी
कहँ ‘ काका ' कविराय , नहीं वह नगरपालिका
बोर्ड लगा दो उसके ऊपर ‘ नरकपालिका '
रचना : काका हाथरसी
‘ काका की फुलझड़ियाँ ’ पुस्तक ( डायमण्ड पॉकेट बुक्स , नई दिल्ली , संस्करण २००२ ) से साभार उद्धृत

नाम-रूप का भेद


नाम - रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर ?
नाम मिला कुछ और तो शक्ल - अक्ल कुछ और
शक्ल - अक्ल कुछ और नयनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बनाये ऐंचकताने
कहँ ‘ काका ' कवि , दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर
 
मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप
जैसे खिलती धूप , सजे बुश्शर्ट पैंट में -
ज्ञानचंद छै बार फ़ेल हो गये टैंथ में
कहँ ‘ काका ' ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे
 
देख अशर्फ़ीलाल के घर में टूटी खाट
सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ
मील चल रहे आठ , करम के मिटें न लेखे
धनीराम जी हमने प्रायः निर्धन देखे
कहँ ‘ काका ' कवि , दूल्हेराम मर गये कुँवारे
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बेचारे
 
पेट न अपना भर सके जीवन भर जगपाल
बिना सूँ ड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल
मिलें गणेशीलाल , पैंट की क्रीज़ सम्हारी
बैग कुली को दिया , चले मिस्टर गिरधारी
कहँ ‘ काका ' कविराय , करें लाखों का सट्टा
नाम हवेलीराम किराये का है अट्टा
 
चतुरसेन बुद्धू मिले , बुद्धसेन निर्बुद्ध
श्री आनंदीलाल जी रहें सर्वदा क्रुद्ध
रहें सर्वदा क्रुद्ध , मास्टर चक्कर खाते
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते
कहँ ‘ काका ', बलवीर सिंह जी लटे हुये हैं
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुये हैं
 
बेच रहे हैं कोयला , लाला हीरालाल
सूखे गंगाराम जी , रूखे मक्खनलाल
रूखे मक्खनलाल , झींकते दादा - दादी
निकले बेटा आशाराम निराशावादी
कहँ ‘ काका ' कवि , भीमसेन पिद्दी से दिखते
कविवर ‘ दिनकर ’ छायावदी कविता लिखते
 
तेजपाल जी भोथरे , मरियल से मलखान
लाला दानसहाय ने करी न कौ ड़ ी दान
करी न कौड़ी दान , बात अचरज की भाई
वंशीधर ने जीवन - भर वंशी न बजाई
कहँ ‘ काका ' कवि , फूलचंद जी इतने भारी
दर्शन करते ही टूट जाये कुर्सी बेचारी
 
खट्टे - खारी - खुरखुरे मृदुलाजी के बैन
मृगनयनी के देखिये चिलगोजा से नैन
चिलगोजा से नैन , शांता करतीं दंगा
नल पर नहातीं , गोदावरी , गोमती , गंगा
कहँ ‘ काका ' कवि , लज्जावती दहा ड़ रही हैं
दर्शन देवी लंबा घूँघट का ढ़ रही हैं
 
अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम
रक्खा दशरथ नाम , मेल क्या खूब मिलाया
दूल्हा संतराम को आई दुल्हन माया
‘ काका ' कोई - कोई रिश्ता ब ड़ा निकम्मा
पार्वती देवी हैं शिवशंकर की अम्मा
रचना : काका हाथरसी
‘ काका की फुलझड़ियाँ ’ पुस्तक ( डायमण्ड पॉकेट बुक्स , नई दिल्ली , संस्करण २००२ ) में प्रकाशित कविता ' नाम बड़े, दर्शन छोटे ' से संक्षिप्त रूप में साभार उद्धृत

पुलिस महिमा

पड़ा - पड़ा क्या कर रहा , रे मूरख नादान
दर्पण रख कर सामने , निज स्वरूप पहचान
निज स्वरूप पह्चान , नुमाइश मेले वाले
झुक - झुक करें सलाम , खोमचे - ठेले वाले
कहँ ‘ काका ' कवि , सब्ज़ी - मेवा और इमरती
चरना चाहे मुफ़्त , पुलिस में हो जा भरती
 
कोतवाल बन जाये तो , हो जाये कल्यान
मानव की तो क्या चले , डर जाये भगवान
डर जाये भगवान , बनाओ मूँछे ऐसीं
इँठी हुईं , जनरल अयूब रखते हैं जैसीं
कहँ ‘ काका ', जिस समय करोगे धारण वर्दी
ख़ुद आ जाये ऐंठ - अकड़ - सख़्ती - बेदर्दी
 
शान - मान - व्यक्तित्व का करना चाहो विकास
गाली देने का करो , नित नियमित अभ्यास
नित नियमित अभ्यास , कंठ को कड़क बनाओ
बेगुनाह को चोर , चोर को शाह बताओ
‘ काका ', सीखो रंग - ढंग पीने - खाने के
‘ रिश्वत लेना पाप ' लिखा बाहर थाने के
रचना : काका हाथरसी
‘ काका की फुलझड़ियाँ ’ पुस्तक ( डायमण्ड पॉकेट बुक्स , नई दिल्ली , संस्करण २००२ ) से साभार उद्धृत

प्यार किया तो मरना क्या

जब मैं बीस बरस का था तो एक ज्योतिषी ने मेरा हाथ देख कर मेरी माँ से कहा था कि 'यह चालीस बरस पार कर ले तो बहुत समझो।' मेरे ऊपर इस घोषणा का कोई ख़ास असर नहीं पड़ा था क्यों कि मेरा स्वास्थ्य बहुत ख़राब था। हर समय कफ़ की शिकायत रहती थी, दातों में पायरिया था। मैंने एक–एक कर के दाँत निकलवाना शुरू कर दिया। नियमित रूप से प्रात: और सायं आठ–दस किलोमीटर टहलना, दौड़ लगाना, नीम की पत्तियाँ चबाना, बकरी का दूध पीना तथा हरे पत्तों की सब्ज़ियों का सेवन चालू कर दिया। 
इन सब चीज़ों का अनुकूल प्रभाव हुआ और उमर चालीस को पार कर गई। पुस्तकालय में बैठ कर नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन, विद्वान, कलाकार और महात्माओं के सत्संग इत्यादि के कारण मेरा झुकाव साहित्य संगीत और कला की ओर होने लगा। कवि सम्मेलनों के निमंत्रण आने लगे, फिर तो पता ही नहीं लगा कि हम कब साठा के पाठा हो गए। ज्योतिषी की भविष्यवाणी भी भूल गए। लेकिन जब सत्तर पार हो गए, तो हमने देखा कि हमारे अनेक साथी भगवान को प्यारे हो गए, हम स्वस्थ–मस्त बने हास्य–व्यंग्य में और अधिक व्यस्त हो गए। मरना तो अलग, बीमार होने के लिए भी अवकाश नहीं मिलता था। धीरे-धीरे जीवन की नैया अस्सी के किनारे आ लगी। अब लोगों ने कहना शुरू कर दिया — 'असिया सो रसिया'। वास्तव में हम कुछ रसीले हो भी गए थे। इतनी उमर में भी अपने को सही–सलामत देख कर हमें खुद ताज्जुब होता। कहीं नज़र न लग जाए, इसलिए हमने कहना शुरू कर दिया कि 'अब हम मरना चाहते हैं।' हमारे मुँह से निकलना था कि लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई। 
युवा हास्य कवि सोचने लगे कि बस काका के मरते ही अपनी तूती बोलने लगेगी। साहित्यकार सोचने लगे कि काका की वजह से गीत मर गए हैं और मंच पर हास्य की धारा बहने लगी है, वह समाप्त होगी तो गीतकारों का कल्याण होगा। परिवार के लोग सोचने लगे कि अच्छा है, भगवान सुन ले तो बीमे की रकम मिल जाए। हमें लगने लगा कि अब हमारा वक्त नज़दीक आ गया है अत: ऐसे स्थान पर चले जाना चाहिए जहाँ गंगा नज़दीक हो, क्यों कि गंगा से हमारा लगाव शुरू से ही रहा है। हमने लोगों से कहना शुरू कर दिया कि 'अब हम मरने वाले हैं, इसलिए हाथरस छोड़कर बिजनौर रहा करेंगे। वहाँ गंगा है और हमारी भतीजी के पति डॉ. गिरिराज शरण भी हैं, जो हमें बड़े प्यार से रखेंगे।' 
जब हम बिजनौर पहुँचे तो डॉ. गिरिराज बोले—'काका अच्छा हुआ, जो आप इधर आ गए। बिजनौर मरने के लिए बहुत अच्छी जगह है लेकिन यहाँ मेरे चेले कुछ डाक्टर हैं, जो आपको आसानी से नहीं मरने देंगे।' हम निराश हो गए और कुछ दिन वहां बिता कर दिल्ली चले आए। दिल्ली में अपनी दूसरी भतीजी के पति डा. अशोक चक्रधर के घर हम ठहरे।
अशोक चक्रधर बोले—काका आपने मरने की ठान ली है, तो फिर दिल्ली में मरना ठीक रहेगा। नेता टाइप लोग सब राजधानी में ही मरते हैं। आप देख लेना, जिस दिन आपकी मृत्यु होगी, उस दिन मैं सारी दिल्ली बंद करा दूँगा। राजघाट से धोबीघाट तक जुलूस ही जुलूस दिखाई पड़ेगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल आपके शव पर पुष्प चढ़ाने आएगा। मैं आपके रथ पर खड़ा होकर कमेंट्री करूँगा जिसे दूरदर्शन वाले दिखाते रहेंगे। आपका हो जाएगा काम और मेरा हो जाएगा नाम। बोलो मंजूर हो तो इंतज़ाम करूँ।
इतने में ही वहाँ कर्णवास गंगा तट वाले एक पंडा आ गए जो गत पचास वर्षों से हमसे परिचित थे। पंडा जी बोले, देखो काका, आप कवि हैं, गंगा प्रेमी हैं और किसी महात्मा से कम नहीं हैं। मरने का विचार आपका उत्तम है, हमारे देश में अनेक मुनियों ने इच्छा मृत्यु का वरण किया है, जब भी आप चाहेंगे तो हम कर्णवास में पहले से ही आपकी चिता सजवा देंगे या चाहेंगे तो जल समाधि दिलवा देंगे। लेकिन जबतक आपके होशहवास दुरुस्त हैं तब तक हमारी राय मानें, तो एक गाय पुन्न कर दें।
हमें पंडित जी की बात जँची नहीं। गर्मी भी काफ़ी पड़ने लगी थी इसलिए मसूरी चले गए। वहाँ नित्य प्रति बड़े–बड़े लोग कैमिल्स बैक रोड़ पर टहलने जाते हैं। उनसे भी हमने चर्चा कर के राय माँगी। उनका कहना था कि 'मैदानी इलाकों में तो सभी मरते हैं लेकिन पहाड़ पर मरना सबके नसीब में नहीं होता। यहाँ मरने का मज़ा ही कुछ और है। यहाँ न लकड़ियों का झंझट है और न चिता सजाने का झगड़ा। डॉक्टर भी आसानी से नहीं मिलता, जो मरते को बचा ले। चार–पाँच मित्र मिल कर लाश को पहाड़ की चोटी से लुढ़का देंगे। चारों ओर बर्फ से ढकी हुई श्वेत धवल चोटियाँ आपका स्वागत करेंगी। बड़े–बड़े तीर्थ यात्रियों की बसें जब यहाँ खड्डे में गिरती हैं तो सभी सीधे स्वर्ग चले जाते हैं। अजी और तो और पांडव तक यहाँ गलने को चले आए थे। आप भी जीवन–मुक्त हो जाएँगे, बार–बार मनुष्य योनि में नहीं भटकना पड़ेगा।'
इस बीच हमें मथुरा रेडियो से एक कार्यक्रम का निमंत्रण मिल गया। हम मथुरा चले आए, वहाँ बृज कलाकेंद्र वाले भैया जी से भेंट हुई। भैया जी से जब बात छिड़ी तो वे बोले —काका, मरने के चक्कर में आप इधर–उधर क्यों भटक रहे हैं, पूरा बंगाल इस शुभकर्म के लिए यहाँ आता है। ब्रज में सभी देवी देवताओं का निवास है। मथुरा में आप मरेंगे तो सीधे मोक्ष को प्राप्त होंगे। उस दिन हम नौटंकी भी करा देंगे। होली दरवाज़े पर झंडा लगवा दिया जाएगा। आप मोक्ष धाम को जाएँगे और हम रबड़ी खुरचन उड़ाएँगे। फिर आपकी पुण्यतिथि पर प्रति वर्ष नगाड़ा बजता रहेगा। चंदा होता रहेगा और धंधा चलता रहेगा। बोलो मंज़ूर हो तो आख़िरी घुटवा दूँ बादाम–पिस्ते की केसरिया ठंडाई। हमने सोचकर जवाब देने के लिए कहते हुए उनसे विदा ली और हाथरस आ गए।  
हाथरस में हमारे मरने की चर्चा आग की तरह फैल गई। सभी शुभचिंतक इकट्ठे हो गए। हमारा बेटा लक्ष्मी नारायण बोला — काकू, आपको सब लोग बहका रहे हैं, आपकी कुंडली साफ़ कह रही है कि आप ज़मीन पर मर ही नहीं सकते। अभी तो आपको एक अमरीका यात्रा और करनी है। मैं प्रोग्राम बना देता हूँ । जाने से पहले पचास लाख का बीमा भी करा दूँगा। अगर हवाई जहाज़ गिर गया, तो आपको बिना कष्ट मौत मिलेगी, और इधर मैं बीमा की रकम डकार जाऊँगा। ब्याज से प्रतिवर्ष श्राद्ध कर दिया करूँगा, फिर सैकड़ों विशिष्ट व्यक्तियों के साथ मरने का मज़ा ही कुछ और है।
इस चकल्लस में कुछ लोगों ने गोष्ठी जमा ली। कविता पाठ हुए और पत्रकार सम्मेलन हुआ। हमें महसूस हुआ कि अभी तो हमारी आवाज़ में पूरी कड़क है, तभी सामने बैठी एक बुढ़िया पर हमारी नज़र गई, जिसकी सफ़ेद ज़ुल्फ़ों पर लाइट मार रही थी। हम उस पर मर गए और मंच पर ही अड़ गए, मित्र लोग ताड़ गए और सबने मिलकर घोषणा कर दी. . .काका अठासी के हो गए हैं। अब पूरा शतक बनाएँगे और हाथरस में ही मरेंगे। शोर–शराबा सुनकर काकी आ गईं तो सब भाग लिए और हम भीगी बिल्ली बनकर उसके साथ बेडरूम में यह कहते हुए चले गए. . .
बुढ़िया मन में बस गई, लाइट मारें केस।
चल काका घर आपुने, बहुत रह्यो परदेस।।

दामाद और यमराज

जम और जमाई

बड़ा भयंकर जीव है , इस जग में दामाद
सास - ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद
कर देता बरबाद , आप कुछ पियो न खाओ
मेहनत करो , कमाओ , इसको देते जाओ
कहॅं ‘ काका ' कविराय , सासरे पहुँची लाली
भेजो प्रति त्यौहार , मिठाई भर- भर थाली
 
लल्ला हो इनके यहाँ , देना पड़े दहेज
लल्ली हो अपने यहाँ , तब भी कुछ तो भेज
तब भी कुछ तो भेज , हमारे चाचा मरते
रोने की एक्टिंग दिखा , कुछ लेकर टरते
‘ काका ' स्वर्ग प्रयाण करे , बिटिया की सासू
चलो दक्षिणा देउ और टपकाओ आँसू
 
जीवन भर देते रहो , भरे न इनका पेट
जब मिल जायें कुँवर जी , तभी करो कुछ भेंट
तभी करो कुछ भेंट , जँवाई घर हो शादी
भेजो लड्डू , कपड़े, बर्तन, सोना - चाँदी
कहॅं ‘ काका ', हो अपने यहाँ विवाह किसी का
तब भी इनको देउ , करो मस्तक पर टीका
 
कितना भी दे दीजिये , तृप्त न हो यह शख़्श
तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर बक्स ?
अथवा लैटर बक्स , मुसीबत गले लगा ली
नित्य डालते रहो , किंतु ख़ाली का ख़ाली
कहँ ‘ काका ' कवि , ससुर नर्क में सीधा जाता
मृत्यु - समय यदि दर्शन दे जाये जमाता
 
और अंत में तथ्य यह कैसे जायें भूल
आया हिंदू कोड बिल , इनको ही अनुकूल
इनको ही अनुकूल , मार कानूनी घिस्सा
छीन पिता की संपत्ति से , पुत्री का हिस्सा
‘ काका ' एक समान लगें , जम और जमाई
फिर भी इनसे बचने की कुछ युक्ति न पाई
रचना : काका हाथरसी
‘ काका की फुलझड़ियाँ ’ पुस्तक ( डायमण्ड पॉकेट बुक्स , नई दिल्ली , संस्करण २००२ ) से साभार उद्धृत

  ©काका हाथरसी - Todos os direitos reservados.

Template by Devraj Rana | Topo