मँहगाई
जन - गण - मन के देवता , अब तो आँखें खोल
महँगाई से हो गया , जीवन डाँवाडोल
जीवन डाँवाडोल , ख़बर लो शीघ्र कृपालू
कलाकंद के भाव बिक रहे बैंगन - आलू
कहँ ‘ काका ' कवि , दूध - दही को तरसे बच्चे
आठ रुपये के किलो टमाटर , वह भी कच्चे
राशन की दुकान पर , देख भयंकर भीर
‘ क्यू ’ में धक्का मारकर , पहुँच गये बलवीर
पहुँच गये बलवीर , ले लिया नंबर पहिला
खड़े रह गये निर्बल , बू ढ़े , बच्चे , महिला
कहँ ‘ काका ' कवि , करके बंद धरम का काँटा
लाला बोले - भागो , खत्म हो गया आटा
रचना : काका हाथरसी
‘ काका की फुलझड़ियाँ ’ पुस्तक ( डायमण्ड पॉकेट बुक्स , नई दिल्ली , संस्करण २००२ ) साभार उद्धृत
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